Description
प्राचीन भारत में जन भाषा-प्राकृत थी। प्राकृत भाषा में ही 'महावीर तथा बुद्ध' ने अपने प्रवचन किये थे तथा सारा प्राचीन जैन साहित्य इसी भाषा में है। इसको भली प्रकार समझने के लिये प्राकृत व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है।
यह ग्रंथ प्राकृत के पूर्ण और क्रमबद्ध व्याकरणों पर आधृत है। उससे पूर्व 'चण्ड' का व्याकरण उपलब्ध है, पर वह पूर्ण नहीं है। पाणिनि अष्टाध्यायी के सूत्रों की क्रमबद्धता जिस प्रकार भट्टोजि दीक्षित ने दी थी, उसी प्रकार इसमें प्राकृत व्याकरण के सूत्रों की क्रमबद्धता दी गई है और वररुचि के प्राकृत-प्रकाश तथा हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत-शब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। वररुचि एवं हेमचन्द्र विरचित प्राकृत-व्याकरण संस्कृत के माध्यम से लिखे गए हैं।
प्राकृत व्याकरण का महत्व, प्राकृत व्याकरण के वैयाकरणों की विविधता, प्राकृत भाषा के वैयाकरण, वररुचि एवं हेमचन्द्र का व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प्राकृत वर्ण विचार एवं संज्ञाएँ, सन्धि, लिङ्ङ्गानुशासन, शब्द रूप, निपात एवं अव्यय, कारक-समास और तद्धित, तिङन्त, आदेश, लोप, अन्य प्राकृत-भाषाएँ इत्यादि पर दृक्पात किया है। इससे ज्ञात होता है कि आगे प्राकृत के भेद और बढ़ गए तथा वररुचि तथा हेमचन्द्र व्याकरणों को ही आधार बनाकर अन्य व्याकरण लिखे गए।
'वररुचि एवं हेमचन्द्र विरचित प्राकृत व्याकरण' ग्रंथ प्राकृत भाषाओं के विषय में ऐसा ग्रंथ है जो भविष्य में शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगा। वररुचि और सिद्ध हेमचन्द्र व्याकरण न पढ़कर भी शोधार्थी इस पुस्तक से दोनों मूल ग्रंथों को समझ सकेंगे।