Description
न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् महाभारतप्रणेता श्री कृष्णद्वैपायन की यह उक्ति शिक्षक वैशिष्ट्य की परिचायिका है। विद्या-वैभवसम्पन्न मानव की ही द्वितीय संज्ञा है शिक्षक । एकसमानधर्म- गुण मानवों की समवेतता ही समाज कहलाती है और इन दोनों का जो अविनाभाव सम्बन्ध है, वही जगत् है, संसार है। इनमें एक मार्गदर्शक है तो दूसरा मार्ग पथिक, एक द्रष्टा है तो दूसरा अनुपालक। भारतीय विचारधारा के अनुसार लोक-शिक्षण का महनीय कार्य एक वर्ग-विशेष को सौंपा गया था, जो स्वयोग्यतानुसार आचार्य, गुरु तथा उपाध्याय पदवाच्य था। इनका उद्देश्य था शिष्य का उपकार तथा सत्पथ का प्रदर्शन।
ग्रंथ में सामाजिक विकास की चार अवस्थाओं कबीलायुग, जनसमूहयुग, सामन्तयुग व राष्ट्रयुग की चर्चा की गई है। शिक्षा को परिभाषित करते हुए विद्वान् लेखक ने शिक्षक के समाजोन्नायक रूप का प्रतिपादन कर गुरु की महिमा का विस्तार से वर्णन किया है। इसी संदर्भ में समाज के नव-निर्माण में शिक्षक की भूमिका को भी परिभाषित किया है। वेदकालीन शिक्षक के स्वरूप को प्रकट करते हुए वैदिक संस्कारों का परिचय कराया गया है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि गृहस्थाश्रम ही समस्त आश्रमों का मूलाधार है और वही शिक्षा का वास्तविक क्षेत्र है। वैदिक कालीन शिक्षाव्यवस्था का सूक्ष्म निरीक्षण व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसकी उपादेयता पर विस्तार से चर्चा की गई है।