Description
जे. कृष्णमूर्ति (Jiddu Krishnamurti) 20वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली आध्यात्मिक दार्शनिकों में से एक थे। उन्होंने जीवन, शिक्षा, आत्म-ज्ञान, और स्वतंत्रता जैसे विषयों पर गहरी अंतर्दृष्टि दी, और किसी भी धार्मिक संगठन या विचारधारा से स्वयं को अलग रखा।
प्रारंभिक जीवन:
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जन्म: 11 मई 1895, मद्रास प्रेसीडेंसी (अब आंध्र प्रदेश) के मदनपल्ले में।
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पूरा नाम: जिद्दु कृष्णमूर्ति।
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वे एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे और बचपन में उन्हें बीमार, कमजोर और असामान्य माना जाता था।
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1909 में, थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख चार्ल्स वेबस्टर लीडबीटर ने कृष्णमूर्ति को "विश्व-शिक्षक" (World Teacher) के रूप में पहचाना।
'ऑर्डर ऑफ द स्टार' और अस्वीकरण:
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थियोसोफिकल सोसाइटी ने उनके लिए Order of the Star in the East नामक संगठन बनाया।
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लेकिन 1929 में, जब वे 34 वर्ष के थे, कृष्णमूर्ति ने उस संगठन को भंग कर दिया और कहा:
“सत्य एक पथविहीन भूमि है।”
उन्होंने कहा कि किसी संस्था, धर्म, या गुरु के माध्यम से सत्य नहीं पाया जा सकता।
दार्शनिक दृष्टिकोण और शिक्षाएँ:
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उन्होंने किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक प्रथा, परंपरा या धार्मिक अनुशासन का समर्थन नहीं किया।
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मुख्य विषय:
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आत्म-निरीक्षण (Self-inquiry)
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विचार की सीमाएँ
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पूर्ण आंतरिक स्वतंत्रता
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प्रेम, भय, और समय की प्रकृति
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सच्चा शिक्षण और शिक्षा का उद्देश्य
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उनका मानना था कि मनुष्य को अपने भीतर की चेतना को समझना होगा, न कि बाहरी अनुकरण से जीना।
लेखन और व्याख्यान:
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उन्होंने दुनिया भर में व्याख्यान दिए — भारत, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि।
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उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें:
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The First and Last Freedom
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Commentaries on Living
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Freedom from the Known
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Krishnamurti’s Notebook
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शैक्षिक योगदान:
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उन्होंने भारत, अमेरिका और इंग्लैंड में कई विद्यालयों की स्थापना की, जैसे:
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ऋषिवैली स्कूल (भारत)
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ब्रॉकवुड पार्क स्कूल (यू.के.)
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ओजाई स्कूल (कैलिफ़ोर्निया)
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मृत्यु और विरासत:
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मृत्यु: 17 फरवरी 1986, ओजाई, कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका।
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अंतिम शब्दों में उन्होंने कहा:
"अब यह सब खत्म हो गया है।"
उनकी मृत्यु के बाद भी उनके विचार पुस्तकों, रिकॉर्डिंग्स, और शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से जीवित हैं।
निष्कर्ष:
जे. कृष्णमूर्ति का जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति पारंपरिक मानसिकता से ऊपर उठकर गहराई से जीवन और चेतना को समझने का मार्ग दिखा सकता है। वे न तो गुरु थे, न ही किसी पंथ के प्रचारक — वे केवल 'देखने वाले' थे।
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