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  • वैदिक देवता (उद्भव और विकास) The Most Comprehensive Book Ever on Vedic Gods by Gayacharan Tripathi
  • वैदिक देवता (उद्भव और विकास)- The Most Comprehensive Book Ever on Vedic Gods
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वैदिक देवता (उद्भव और विकास)- The Most Comprehensive Book Ever on Vedic Gods

Publisher: D.K. Printworld Pvt. Ltd.
Language: Sanskrit & Hindi
Total Pages: 700
Available in: Hardbound
Regular price Rs. 1,500.00
Unit price per

Description

डॉ० गयाचरण त्रिपाठी कृत वैदिक देवता पुस्तक वैदिक देवताओं के स्वरूप तथा विकास का विवरण प्रस्तुत करने में सर्वथा सार्वभौमिक मार्ग का अवलम्बन कर रही है । लेखक ने इसे प्रमेय प्रबल तथा प्रमाण पुरस्कृत करने में कोई भी साधन छोड़ नहीं रखा है । विकास की धारा ब्राह्मण ग्रन्यों तथा कल्पसूत्रों से होकर पुराण तथा इतिहास ग्रन्थ रामायण तथा महाभारत तक बड़ी ही विशद रीति से प्रवाहित होती दिखलाई गई है । इस कार्य के लिए लेखक के समीक्षण, अनुशीलन तथा सूक्ष्मेक्षिका की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी ही है। अपने सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए इन दुर्लभ ग्रन्यों से पुष्कल उद्धरण देकर तथा उनका साब्रेपाक् विश्लेषण कर लेखक ने विज्ञ पाठकों के सामने सोचने विचारने, समझने बूझने के लिए पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत कर दी है जो नितान्त उपादेय, आवर्जक तथा आकर्षक है । वैदिक तथ्यों के अन्तसल में प्रवेश करने की लेखक की क्षमता तथा विश्लेषण प्रवणता के ऊपर आलोचक का मन रीझ उठता है और वह शतश उसको धन्यवाद देने के लिए लालायित हो जाता है । इसी ग्रन्थ के अध्ययन के लिए यदि वह वैदिक तत्वजिज्ञासु जनों को राष्ट्रभाषा सीखने के लिए हठात् आग्रह कर बैठता है, तो यह अर्थवाद नहीं, तथ्यवाद है । मैं तो कृति पर सर्वथा मुग्ध हो गया है नूतन तथ्यों के विश्लेषण से सर्वथा आप्यायित हूँ और भागवान् से प्रार्थना करता हूं कि विद्वान् लेखक महोदय इसी प्रकार के गम्भीर तथ्यों के विवेचक प्रकाशक ग्रन्यों से सरस्वती का भण्डार भरते रहें । तथास्तु ।

 

भारतीय धार्मिक परम्परा अपने उपास्य देवों की विविधता एव उनकी भूयसी सख्या के लिए विख्यात है। हिन्दू धर्म में पूजित एव सम्मानित देवों के जिस स्वरूप और उनसे संबन्धित जिन कथाओं से आज हम परिचित हैं उनके विकास का एक लम्बा और रोचक ऐतिहासिक क्रम है जो भारत के प्राचीनतम एव प्राचीनतर वाङ्मय पर दृष्टिपात करने से उजागर होता है। इन देवों की वैदिक संहिताओं में उल्लिखित अथवा सकेतित चारित्रिक विशेषताओं से सूत्र ग्रहण करके परवर्ती वैदिक साहित्य, एव तत्पश्चात् महाभारत रामायण तथा विविध पुराणों में उनके व्यक्तित्व का विकास करते हुए तत्सबन्धित अनेक कथाओं का सुन्दर पल्लवन किया गया है जिससे ये सूक्ष्म वैदिक देव पुराणों तक आते आते अत्यन्त सजीव एव मूर्तिमान् हो उठे हैं। पुराण कथाकारों की प्रतिभा के अतिरिक्त लोक मानस एव क्षेत्रीय परम्परा ने भी इसमें सहयोग किया है।

प्रस्तुत ग्रन्थ प्राय सभी प्रमुख वैदिक देवी की अवधारणाओं एवं उनके प्राचीनतम स्वरूप का निरूपण करके, देवी के स्वरूप एवं व्यक्तित्व में कालक्रम से धीरेधीरे हुए क्रमिक एतिहासिक विकास का रोचक एव प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करता है।

लेखक परिचय

गयाचरण त्रिपाठी ( आगरा, १९३९). राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सस्कृत विद्वान् । आगरा विश्वाविद्यालय से स्वर्णपदक सहित एमए ( १९५९) एव उसी विश्वविद्यालय से वैदिक देवशास्त्र पर पीएच डी ( १९६२) पश्चिम जर्मनी की अध्येता छात्रवृत्ति पर क्र विश्वविद्यालय मे लैटिन, भारोपीय भाषाविज्ञान, तुलनात्मक धर्मशास्त्र तथा भारत विद्या (इण्डोलॉजी) का उच्चतर अध्ययन एव डी. फिल् की उपाधि ( १९६६)। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग से पुरी के जगन्नाथ मन्दिर पर कार्य हेतु डी लिट् ( १९८६) 

अलीगढ, उदयपुर तथा फ्राइबुर्ग विश्वविद्यालयों में नियमित तथा टचूबिगन, हाइडेलबर्ग, बर्लिन, लाइपत्सिष्, मार्बुर्ग (जर्मनी) एव ब्रिटिश कोलम्बिया (कनाडा) विश्वविद्यालय में अतिथि आचार्य के रूप में अध्यापन । गंगानाथ झा केन्द्रीय विद्यापीठ, प्रयाग में ११७७ से २००१ तक प्राचार्य, तत्पश्चात् इंन्दिग गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, दिल्ली के कलाकोश संविभाग में आचार्य अध्यक्ष । संप्रति भारतीय उच्च अध्ययन सस्थान शिमला में राष्ट्रीय अध्येता ।

वेद, पुराण, आगम, पुरालेख एव पाण्डुलिपि विज्ञान में विशेष रुचि । साहित्य, दर्शन एव वेद विषयक अनेक पुरस्कृत पाण्डुलिपियों का सम्पादन तथा हिन्दी संस्कृत, अग्रेजी एवं जर्मन भाषाओं में शोधपत्र एव पुस्तक प्रकाशन । उ. प्र. बिहार, तथा दिल्ली की अकादमियों एव हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से महामहोपाध्याय की उपाधि से सम्मानित ।

मम श्रुधि नवीयस

ऋ० वे० १ । १३१ । ६

वैदिक देवता का प्रथम प्रकाशन आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व सन् ८० के आरम्भिक वर्षों में दो खण्डों में हुआ था । कुछ ही वर्षो में पुस्तक दुष्प्राप्य हो गई । प्रकाशन संस्था के पास अनुपलब्धता के कारण व्यक्तिगत रूप से मेरे पास भी अनेक पत्र आते रहे, जिनमें इसकी कुत्रचित् प्राप्यता के सम्बन्ध में जिज्ञासा अथवा आपूर्ति की प्रार्थना रही । प्रकाशक ने मुझे इसकी एक भी प्रति नहीं दी थी । इलाहाबाद में मुद्रित होने के कारण प्रेस से अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के चलते मैंने वहीं से कुछ प्रतियाँ प्राप्त कर ली थीं, अत मैं विद्वानों और शोधार्थियों की आवश्यकता की पूर्ति में असमर्थ रहा । इधर कुछ मास पूर्व दुखं सतां तदनवाप्तिकृतं विलोक्य १ जब मैंने अकस्मात् एक दिन राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के वर्तमान कुलपति, परम मेधावी, प्रख्यात संस्कृत कवि, उत्कृष्ट गवेषक एवं कुशल प्रशासक, मेरे अनुज निर्विशेष प्रो राधावल्लभ जी त्रिणठी से इसके संस्थान द्वारा पुन प्रकाशन की चर्चा की तो वे तत्काल इसके लिए सहमत हो गए और उनकी इस उदारता के परिणामस्वरूप ही पुस्तक का यह द्वितीय, अंशत संशोधित और किझित् परिवर्धित संस्करण प्रकाश में आ रहा है ।

पुस्तक की मूल रचना सन् १९५९ एवं १९६२ के मध्य हुई थी, कुछ सुधार उसमें प्रथम बार छपते समय हुआ, कुछ इस बार । किन्तु मूल स्वरूप वही है । इस ग्रन्थ को आधार बनाकर या इससे प्रेरणा ग्रहण कर उत्तर भारतीय विश्वविद्यालयों में कई शोध प्रबन्धों की रचना हुई है, जो मेरे देखने में भी आए हैं पर आवश्यकता है इस कार्य को आगे बढ़ाने की । मैंने वैदिक देवों के विकास का अनुगमन प्राय केवल पुराणों तक ही किया है, किन्तु पुराणों की रचना की समाप्ति के साथ हमारी देव कथाओं के विकास का इतिहास समाप्त नहीं होता । अष्टादश महापुराणों के पश्चात् अष्टादश (अपितु और अधिक) उपपुराणों की रचना होती है । उसके पश्चात् भारत के प्राय प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र में उस क्षेत्र की भाषा में नये नये पुराण लिखे जाते हैं, जिनके नाम सामान्यत वे ही हैं जो संस्कृत पुराणों के, किन्तु विषय वस्तु पूर्णत भिन्न है और उनमें क्षेत्रीय देवकथाओं को अधिक महत्त्व दिया गया है । उड़िया का नरसिंह पुराण एतन्नामविशिष्ट संस्कृत उपपुराण से पूर्णत भिन्न है और उत्कल क्षेत्र में प्रचलित लोक कथाओं एवं धार्मिक विश्वासों को अधिक महत्त्व देता है । दाक्षिणात्य आँचल में तमिल भाषा की रचनाओं में शिव के सम्बन्ध में जो कथाएँ मिलती हैं, वे उत्तर भारत की कथाओं से पूर्णत भिन्न हैं और संस्कृत पुराणों में उनका दूर दूर तक कोई चिह्न नहीं है । इसके अतिरिक्त संस्कृत पौराणिक कथाओं के आदि या अन्त में एक दो नये पात्रों वो घटनाओं को जोड़ कर नई नई कथाओं की सृष्टि की गई है और कई बार उन पुनर्निरूपित कथाओं के आधार पर कुछ धार्मिक क्षेत्रों एवं प्रसिद्ध मन्दिरों के माहात्म साहित्य की रचना हुई है । अमृत मन्थन की कथा पुराणों में सुविख्यात है किन्तु अमृत कुम्भ लेकर दैत्यों के भागने पर अमृत की कुछ बूँदों का हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में छलक जाना और उसके आधार पर इन क्षेत्रों में कुम्भ खान का महत्त्व पुराणों में सम्भवत प्रतिपादित नहीं है ।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों के धार्मिक विश्वास. दैनिक कर्मकाण्ड तथा लौकिक उत्सव जितनी उनकी क्षेत्रीय मान्यताओं से प्रभावित होते हैं, उतने संस्कृत पुराणों से नहीं । संस्कृत पुराणों की कई उपेक्षित नारियों कई क्षेत्रों की अपूर्व शक्तिशाली देवियाँ हैं । महाभारत में वर्णित भीम की राक्षसी पत्नी हिडिम्बा, घटोत्कच की माता सम्पूर्ण हिमाचल पर्वतीय क्षेत्र की पूज्य देवी है । वह मण्डी कुल्लु के राजपरिवार की उपास्या कुलदेवी है । उसके आगमन के बिना कुल्लू का सुप्रसिद्ध दशहरा उत्सव प्रारम्भ नहीं होता । उत्तर पूर्व भारत के त्रिपुरा प्रदेश में भी उसकी उपासना होते हुए मैंने देखी है । तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में द्रौपदी की उपासना का एक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय है और उसके निमित्त कार्त्तिक मास में एक बहुत बड़े लोकोत्सव का आयोजन होता है ।१ हिमाचल के सिरमौर जिले में रेणुकासर के पास परशुराम की इस माता रेणुका का एक बड़ा प्रसिद्ध मन्दिर है, जहाँ कार्त्तिक पूर्णिमा को अनेक भव्य आयोजनों के साथ एक बहुत बड़ा मेला लगता है, मेले की अवधि में परशुराम अपनी माता से मिलने आते हैं और उसकी समाप्ति पर माँ से अश्रुपूर्ण विदाई लेते हैं । महाराष्ट्र कर्णाटक के कुछ आँचलों में भी माता रेणुका के मन्दिर हैं, जो अपनी देवदासी प्रथा के कारण चर्चा में रहे हैं । रेणुका के पति महर्षि जमदग्नि हिमाचल के मलाना गाँव ( कुल्लू) में जमलू देवता के रूप में पूजे जाते हैं । केरल के शबरीमलाई (शबर पर्वत) मन्दिर के सुप्रसिद्ध अधिष्ठातृ देव, चिरकिशोर, ब्रह्मचारी अश्यप्पन् जिनके लिए उनके उपासक मकर संक्रान्ति के पूर्व चालीस दिनों तक एकाशी और ब्रह्मचारी रहकर, काले कपड़े पहने, क्षीर विवर्जित, तीर्थाटन करते हुए देखे जा सकते हैं मोहिनी रूपधारी विष्णु ( माता) एवं उन पर आसक्त शिव (पिता) के पुत्र माने जाते हैं । कहाँ हैं पुराणों में ये कथाएँ भील एवं संथाल आदि जनजातियों ने भी महाभारत एवंरामायण की कथाओं को ग्रहण कर उन्हें अपनी सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं और मूल्यों के अनुसार ढाल लिया है ।

वर्तमान हिन्दू धर्म का वास्तविक स्वरूप जितना इन लौकिक मान्यताओं पर निर्भर है उतना वेदों और संस्कृत पुराणों पर नहीं, यद्यपि मूल उत्स वे ही हैं । देवों एवं देवकथाओं से सम्बधित इन लौकिक मान्यताओं को लिपिबद्ध करके हमें इन्हें भी अध्ययन का विषय बनाना होगा । इस विषय पर कार्य और शोध करने की अभी अनन्त सम्भावनाएँ हैं । बौद्ध और जैन धर्मो में जाकर भी हमारे वैदिक पौराणिक देवों का स्वरूप बहुत बदला है । जापान और कोरिया तक हमारे देवता पहुँचे हैं । दक्षिण पूर्व एशिया (इण्डोनेशिया/बाली) आदि में भी उनका कभी धार्मिक एवं सांस्कृतिक वर्चस्व रहा है । कम्बोडिया (काम्बोज) का अंकोर वाट नामक विष्णु मन्दिर अपनी अनन्त प्रतिमाओं और महाभारताभागवत के अनेक अंकनों सहित विश्व का विशालतम पुण्य क्षेत्र है । भारत में ब्रह्मा के मन्दिर कहीं कहीं, गिने चुने ही हैं, किन्तु बैंकॉक ( थाइलैण्ड) में मैंने प्राय प्रत्येक सम्पन्न घर के बाहर बगीचे या शाद्वल ( लॉन्) पर तुलसी चीरा की भांति एक छोटा सा मन्दिर बना देखा, जिसमें प्रजापति ब्रह्मा की एक नियमित रूप से पूज्यमान सुनहली मूर्ति प्रतिष्ठापित थी । वहाँ ब्रह्मा घर एवं परिवार की शान्ति एवं कल्याण के लिए पूज्य हैं । भारत के बाहर कई देशों ( जैसे नेपाल, इण्डोनेशिया) में बुद्ध एवं शिव का व्यक्तित्व मिल कर एक हो गया है । ऐसे बहुत से पक्षों को उजागर करने की अभी आवश्यकता है । यदि इस पुस्तक से भावी विद्वानों की दृष्टि इन अल्पज्ञात तथ्यों की ओर आकर्षित हुई, तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूँगा ।

कथ के इस नवीन संशोधित संस्करण में यत्र तत्र कुछ नूतन सामग्री विषय वस्तु के मध्य में तथा पाद टिप्पणियों के रूप में जोड़ कर पुस्तक को यथासम्भव अद्यतन बनाने की चेष्टा की गई है । शिमला के संस्थान में राष्ट्रीय आचार्य के रूप में विविध शोध प्रकल्पों में व्यस्त रहने के कारण कथ के बहुत अधिक विस्तार हेतु समय नहीं निकाल पाया । भविष्य में यदि ई थर ने कोई अवसर दिया तो प्रयास करूँगा । जोड्ने के लिए अभी बहुत कुछ अवशिष्ट है ।

पुस्तक के प्रथम संस्करण पर प्रो० बलदेव उपाध्याय (वाराणसी) प्रो० दाण्डेकर (पूना) प्रो० डोंगे (मुम्बई), प्रो० जानी (बड़ोदा) तथा प्रो० राममूर्ति त्रिपाठी (उज्जैन) आदि विद्वानों के शुभाशीर्वाद प्राप्त हुए थे, जो अब प्राय इस संसार में नहीं हैं, उन्हें मैं सश्रद्ध प्रणाम करता हूँ ।

प्रिय जीवन संगिनी सुमन ने इस बार फिर पुस्तक के प्रूफ संशोधन तथा अनुक्रमणिका निर्माण में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान किया है । नये नये साररस्वतकार्य हाथ में लेने और दीर्घसूत्रता त्याग कर पुराने कार्य शीघ्र समाप्त करने की सतत प्रेरणा उससे निरन्तर प्राप्त होती रहती है । मेरी सभी प्रकार की ऊर्जा का वही स्रोत है । मैसर्स डी.वी. प्रिंटर्स के विनम्र एवं कार्यकुशल स्वत्वाधिकारी श्री इन्द्रराज तथा उनके सहयोगी शुभाशीष के पात्र हैं, जिन्होंने अत्यन्त मनोयोग पूर्वक इस ग्रन्थ का अक्षरसंयोजन किया और इस पुस्तक को इतना शुद्ध एवं सुन्दर प्रारूप दिया ।

विषय सूची

1

प्रथम अध्याय भारोपीय काल के उपास्य देव तत्त्व

1

2

भारोपीय देवताओं का विवरण

12

3

द्वितीय अध्याय अवेस्ता और उसके वैदिक देवता

38

4

ईरानी देवों का परिचय

69

5

तृतीय अध्याय वैदिक तथा परवर्ती देवशास्त्र का सिंहावलोकन

122

6

चतुर्थ अध्याय द्युवास्थानीय देवता

175

7

पंचम अध्याय द्युवास्थानीय देवता विष्णु, लक्ष्मी तथा गरुड

261

8

षष्ठ अध्याय अन्तरिक्षस्थानीय देवता

356

9

सप्तम अध्याय अन्तरिक्ष स्थानीय देवता रूद (शिव), दुर्गा, गणेश तथा स्कन्द

405

10

अष्टम अध्याय पृथिवी स्थानीय देवता

506

11

नवम अध्याय अमूर्त अथवा भावात्मक देवता

558

12

दशम अध्याय परिशिष्ट (लोकदेवता एवं असत् शक्तियाँ)

620


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  • Hong Kong Dollar (HKD)
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  • South Korean Won (KRW)
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  • Cayman Islands Dollar (KYD)
  • Kazakhstani Tenge (KZT)
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  • Nepalese Rupee (NPR)
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  • Norwegian Krone (NOK)
  • Omani Rial (OMR)
  • Panamanian Balboa (PAB)
  • Pakistani Rupee (PKR)
  • Papua New Guinean Kina (PGK)
  • Peruvian Nuevo Sol (PEN)
  • Philippine Peso (PHP)
  • Polish Zloty (PLN)
  • Qatari Rial (QAR)
  • Romanian Leu (RON)
  • Russian Ruble (RUB)
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  • Saudi Riyal (SAR)
  • Sao Tome and Principe Dobra (STD)
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  • Swedish Krona (SEK)
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  • Thai Baht (THB)
  • Tanzanian Shilling (TZS)
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  • Tunisian Dinar (TND)
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