Description
वैदिक वाङ्मय में महर्षि कात्यायन के नाम से अनुक्रमणी श्रौतसूत्र, गह्यसूत्रादि अनेक ग्रन्थप्रसिद्ध हैं। शुक्लयजुर्वेद की दोनों ही शाखाओं-माध्यन्दिन तथा काण्व में उनका अत्याधिक योगदान है कात्यायन श्रौतसूत्र कल्प साहित्य की विशिष्ट निधि है। प्रस्तुत ग्रन्थ में महर्षि कात्यायन के जीवन कृतित्व और अवदान पर अत्यन्त प्रामाणिक सामग्री का समीक्षात्मक संकलन किया गया है । यह ग्रन्थ वैदिक वाङ्मय के गम्भीर अध्येताओं तथा सामान्य पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है ।
दिनांक 1 जुलाई 1976 को जन्में डॉ. अनूपकुमार मिश्र ने प्राचीन एवं आधुनिक पद्धतियों से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की है । इन्होंने संस्कृत ( वेद वर्ग) तथा एम. ए. (हिन्दी) एवं पी-एच. डी. की उपाधियाँ अर्जित की हैं । इसके अतिरिक्त इनको वैदिक कर्मकाण्ड के सम्पादन में दक्षता प्राप्त है । इन्होंने विश्व संस्कृत सम्मेलन बंगलौर सहित अनेक वैदिक सम्मेलनों एवं शोध गोष्ठियों में भाग लिया है ।
भूमिका
वैदिक एवं वैदिकोत्तर वाङ्मय क्रमश : श्रौत एवं स्मार्त कर्म के अन्तर्गत आने वाले महत्वपूर्ण विषय हैं । ये कर्म प्राचीन काल से ही देवता और मनुष्यों के लिए सभी मनोरथों की पूर्ति मुख्य साधन रहे हैं । वैदिक अनुष्ठानों का आधार संहिताओं के मन्त्र हैं लेकिन मन्त्रों की जानकारी मात्र से ही कोई याज्ञिक कर्म सम्पन्न नहीं होता बल्कि अनुष्ठान की पद्धति का भी पूर्ण ज्ञान हीना आवश्यक है, जो वेदाक् कल्प की सहायता से उपलब्ध हो सकता है । इसीलिए महर्षि पाणिनि ने कल्प को वेद का हस्त कहा है । जिस प्रकार हस्त के बिना मानव का कार्य नहीं चल सकता उसी प्रकार कल्प की जानकारी के बिना यज्ञानुष्ठान का साड़न्ता भी नहीं हो सकती ।
महर्षि कात्यायन ने वैदिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने हेतु संहिताओं का ज्ञान उनके अनुष्ठानों की प्रक्रियाओं का सूक्ष्मतम परिचय एवं गुरु परम्परा से प्राप्त अनुभव सभी याज्ञिकों के लिए अनिवार्य बताया है। कोई भी याज्ञिक छोटा से छोटा वैदिक अनुष्ठान अकेले नहीं सम्पन्न कर सकता है । वैदिक अनुष्ठान की प्रक्रिया समान योग्यता वाले निष्ठावान् ब्राह्मणों का सामूहिक अनुष्ठान है । किसी समय वैदिक अनुष्ठान अत्यधिक लोकप्रिय अवश्य थे । बहुलता से उनके अनुष्ठान सम्पन्न होते थे । ब्राह्मणों के अतिरिक्त तीनों वर्ण इसमें तन, मन और धन से हाथ बँटाकर अपने को कृतार्थ मानते थे, लेकिन समय की गति के अनुसार वर्तमान स्थिति बिल्कुल परिवर्तित हो चुकी है । अश्वमेध वाजपेय, अग्निचयन आदि बड़े श्रौत अनुष्ठानों की बात छोड़िए प्रात काल तथा सायंकाल नियमित रूप से आहुति देने वाले अग्निहोत्रियों के दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं ।
वैदिक कल्पकारों में महर्षि कात्यायन का नाम अन्यतम है । उन्होंने अपने श्रौतसूत्र के प्रथम अध्याय में ही श्रौत की परिभाषाओं का प्रतिपादन किया है । अनन्तर दूसरे अध्याय से प्रक्रिया रूप में ग्रन्थ की रचना की है । अन्त तक उसी क्रम का निर्वाह किया है । अपनी रचना में यह भी ध्यान रखा है कि हाँ 'दर्शपूर्णमासाभ्यां' यजेत कहने से प्रथम दर्श का ग्रहण होता है। तदनुसार प्रथम दर्शयाग का वर्णन करना चाहिए । किन्तु यदि ऐसा किया गया होता तो प्रतिज्ञा भंग हो जाती । कारण, कात्यायन लिखित ' प्रतिज्ञासूत्र ' में पूर्ण मासेष्टि को प्रत्येक इष्टियों को प्रकृति कही है । यह प्रसिद्ध है कि 'प्रकृति वद्धिकृति, कर्त्तव्या अर्थात् प्रकृति ने जो साधारण नियम कहे हैं वही विकृति में लागू होते हैं । उन्होंने यह भी ध्यान रखा है कि दर्श-पूर्णमास याग के कथनानुसार प्रथम दर्श का ग्रहण है और तदनुसार प्रथम दर्श
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विषय-अनुक्रमणिका |
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1 |
प्राक्कथन |
iii |
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2 |
भूमिका |
v |
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3 |
संकेत सूची |
xi |
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4 |
प्रथम अध्याय |
1-13 |
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5 |
महर्षि कात्यायन जीवन वृत्त रम्य कालनिर्णय |
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6 |
द्वितीय अध्याय |
14-35 |
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7 |
महर्षि कात्यायन प्रणीत ग्रन्थों का परिचयात्मक |
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8 |
तृतीय अध्याय |
36-130 |
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9 |
वैदिक श्रौत अनुष्ठानों के सन्दर्भ में महर्षि कात्यायन के योगदान |
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10 |
चतुर्थ अध्याय |
131-169 |
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11 |
वैदिकोत्तर कर्मकाण्ड के प्रसंग में महर्षि कात्यायन योगदान की समीक्षा |
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12 |
पंचम अध्याय |
170-196 |
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13 |
वैदिक वाङ्मय के संरक्षण के सन्दर्भ में महर्षि कात्यायन के परिशिष्टों का परिशीलन |
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14 |
षष्ठ अध्याय अन्य योगदान परिभाषिक शब्दों की व्याख्या |
197-230 |
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15 |
सप्तम अध्याय निष्कर्ष - भारतीय सांस्कृतिक शेवधि के संरक्षण, संवर्धन एवं परिपालन की दिशा में महर्षि कात्यायन के योगदान का समग्र मूल्यांकन
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231-256 |
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16 |
परिशिष्ट: सहायक ग्रन्थ सूची |
257 |