Description
प्राक्कथन
संस्कृत का नाटय साहित्य विविधताओं से परिपूर्ण है। यों तो भारतीय नाट्य शास्त्र की परम्परा के अनुसार नाटकों को शृंगाररस-प्रधान या वीर-रस-प्रधान होना चाहिए, लेकिन धीरे-धीरे संस्कृत नाटकों का प्रणयन अन्य रसों को प्रधान मानकर भी किया जाने लगा। इसी के परिणाम स्वरूप करुण या शान्त-रस के अनेक नाटक भी संस्कृत में लिखे गये। परन्तु इस प्रकार के नाटकों के सभी नाटककार सफल नहीं हुए। कुछ ऐसे नाटककार अवश्य हुए जिन्होंने प्राचीन नाट्य परम्परा को तोड़कर नाटय के क्षेत्र में कुछ सफल प्रयोग किये । करुण को अंगी रस के रूप में रखते हुए भवभूति ने जिस उत्तररामचरित नाटक की रचना की, वह संस्कृत साहित्य के प्रमुख नाटकों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उसी प्रकार कुछ शान्त-रस-प्रधान नाटक भी बहुत महत्त्वपूर्ण हुए, लेकिन उनमें से अनेक नाटक मात्र संख्या-वृद्धि के लिए ही कहे जा सकते हैं ।
संस्कृत के नाटककारों ने जब देखा कि वीर या शृंगार रस से युक्त नाटक उन्हीं घिसी-पिटी बातों को बार-बार दुहरा रहे हैं, तब उन्होंने नये प्रकार के नाटकों का प्रणयन प्रारम्भ किया और इसी के फल वरूप दार्शनिक नाटकों की भी उत्पत्ति हुई। प्रायः सभी दार्शनिक नाटक शान्त-रस-प्रधान हैं। कुछ दार्शनिक नाटक के नाटककारों ने शृगार रस को महत्त्व प्रदान तो किया है, लेकिन उसमें वे सफल नहीं ही हुए हैं और नाटकीय वस्तु के कारण वहां श्रृंगार रस का रूप नहीं ले पाता है, अपितु वह श्रृंगाराभास दृष्टिगोचर होता है। फिर भी कुछ दार्शनिक नाटक उस श्रृंगाराभास के कारण बहुत ही मनोरंजक बन पाये हैं ।
यह तथ्य है कि दार्शनिक विचारधाराओं एवं भावों को ध्यान में रखकर नाटक का निर्माण करना एक बहुत ही कठिन व्यापार है, तथापि कुछ नाटक-कार इसमे पूरी तरह सफल हुए हैं। प्रबोधचन्द्रोदयकार कृष्णमिश्र सफल दार्शनिक नाटककारों में अग्रणी माने जा सकते हैं। श्री कृष्णमिश्र को अनेक विद्वान एवं इतिहासकार नये प्रकार के नाटकों के आदि-प्रणेता स्वीकार करते