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  • अन्नम्भट्टकृत प्रदीपोद्यतनम् - Anna Bhatta Krit Pradipodyatanam - Motilal Banarsidass author
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अन्नम्भट्टकृत प्रदीपोद्यतनम्- Anna Bhatta Krit Pradipodyatanam

Publisher: Nag Publishers
Language: Sanskrit
Total Pages: 2220
Available in: Hardbound
Regular price Rs. 4,500.00 Sale price Rs. 5,250.00
Unit price per
Tax included.

Description

संस्कृत भाषा में सामान्यतः प्रत्येक शास्त्र पर पांच प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्त्तिक और टीका। इनमें सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त, असन्दिग्ध, व्यापक सारवान् और प्रामाणिक होते हैं।

अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।।

वार्तिक ग्रन्थों में उक्त, अनुक्त और दुरूक्त तथ्यों का विवेचन होता है तथा भाष्य में सूत्रानुसारी शब्दों के द्वारा सूत्रार्थ-चिन्तन के साथ-साथ मौलिक विवेचन के लिए भी अवसर प्रदान किया जाता है।

सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥

व्याकरणशास्त्र में आचार्य पाणिनि सूत्रकार, वार्त्तिककार कात्यायन तथा भाष्यकार आचार्य पतञ्जलि हैं। यही कारण है कि संस्कृत व्याकरण 'त्रिमुनिव्याकरणम्' कहा जाता है। महाभाष्य का उपजीव्य ग्रन्थ अष्टाध्यायी है।

व्याकरण शास्त्र में महाभाष्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। पाणिनीय व्याकरण परम्परा में इसे परम प्रमाण के रूप में स्थित होने का गौरव प्राप्त है।

'यथोत्तरं हि मुनित्रयस्य प्रामाण्यम्' कै. कृ.१.१.२९

पाणिनिसूत्र, कात्यायन-वार्तिक और महाभाष्य के विरोध होने पर वैयाकरणों में महाभाष्य का वचन ही समादरणीय होता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी का महती व्याख्या रूप यह ग्रन्थ व्याकरणविज्ञान का उच्चतम निदर्शन है। इस विषय में कोई विप्रतिपत्ति नहीं। आकार और प्रतिपाद्य दोनों ही दृष्टियों से यह ग्रन्थ महान् है। परन्तु इसकी अनुपम विशेषता है व्याकरण को व्यवह्रियमाण वाक् के सत्यांश के साथ सम्बद्ध कर देना, जिसके कारण सर्वविधमहत्त्वयुक्त यह वस्तुतः 'महाभाष्य' ही है।

व्याकरण जैसे शुष्क एवं दुरूह विषय को सरल, सरस और प्राञ्जल भाषा में उपनिबद्ध करने की भाष्यकार पतञ्जलि की शैली समस्त संस्कृतवाङ्मय में अनुपम है, जिसका अनुवर्तन मीमांसासूत्रों के भाष्यकार शबरस्वामी तथा वेदान्तसूत्रों के भाष्यकार शङ्कराचार्य भी नहीं कर पाए हैं। किन्तु इसमें सरल भाषा में ही पतञ्जलि ने उसमें समस्त विद्याओं का बीजरूप में समावेश कर दिया है।

कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदर्शिना। सर्वेषा न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ।।

वा.प. २.४.७७

यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम् इस निष्कर्ष के अनुसार व्याकरणविषयक सिद्धान्त की मान्यता के सन्दर्भ में महाभाष्कार पतञ्जलि का स्थान सर्वोपरि माना गया है। पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि में उत्तरोत्तर सिद्धान्त-मीमांसा की गई है।