Description
भूमिका
आज से लगभग ११३ वर्ष पूर्व सन् १८९१ में पालि टेक्स्ट सोसाइटी लन्दन से महाबोधिवंस रोमन लिपि में प्रकाशित हुआ था। उसका सम्पादन एस. ए. स्ट्रांग ने किया था। उसी वर्ष कोलम्बो (श्रीलंका) से भी यह ग्रन्थ सिंहली लिपि में प्रकाशित हुआ था और भिक्षु उपतिष्य ने उसका सम्पादन किया था; किन्तु आज तक इस ग्रन्थ का देवनागरी लिपि में प्रकाशन नहीं हुआ है। मुझे महाबोधिवंस के रोमन एवं सिंहली लिपि में प्रकाशित संस्करणों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे ग्रन्थ इतने जर्जर अवस्था में पहुँच चुके हैं कि उनके पन्ने पलटना भी दुष्कर है। तभी मैंने अनुभव किया कि इस प्रकार के ग्रन्थ का देवनागरी लिपि में प्रकाशित होना परम आवश्यक हैं। कारण इससे देवनागरी लिपि में प्रकाशित पालि साहित्य में न केवल अभिवृद्धि होगी: अपितु इस प्रकार के ग्रन्थों से विद्वज्जनों में पालि- भाषा के प्रति रुझान भी उत्पन्न होगा। अतः पालि भाषा में विरचित महाबोधिवंस को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत कर अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है।
सामान्यतः महाबोधिवंस की गणना पालि के वंस- साहित्य के अन्तर्गत की जाती है; क्योंकि इसमें अनुराधपुर (श्रीलंका) में लगाये गये बोधिवृक्ष का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसको पढ़ने से पाठक को रसानुभूति होती है और इसकी भाषा को गुणों एवं अलङ्कारों से सजाया-संवारा गया है. अतः इतिहासपरक ग्रन्थ होने पर भी इसे काव्य-ग्रन्थों की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। वस्तुतः केवल इतिहास सम्बन्धी तथ्यों को शुष्क एवं नीरस शैली में प्रस्तुत करने वाले वंस - साहित्य के ग्रन्थों को कालान्तर में काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई और इसका प्रारम्भ महाबोधिवंस से हुआ. अतः काव्य- साहित्य की दृष्टि से भी महाबोधिवंस का विशेष महत्त्व है।
यहाँ एक प्रश्न उभरकर सामने आता है और वह यह कि स्थविरवादी परम्परा में कविता करने तक को अनुचित समझा जाता है तथा आलङ्कारिक भाषा एवं रसात्मक वाक्यों के प्रयोग को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसका पालन स्थविरवादी परम्परा के अनुयायी बरमा, थाई, स्याम आदि देशों में आज तक होता आ रहा है, तो क्या कारण था कि उस परम्परा के अग्रणी