• Bhartiye Jatiyon Ka Itihas- भारतीय जातियों का इतिहास
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Bhartiye Jatiyon Ka Itihas- भारतीय जातियों का इतिहास

Author(s): S. S. Gautam
Publisher: Siddharth Books
Language: Hindi
Total Pages: 342
Available in: Paperback
Regular price Rs. 560.00
Unit price per

Description

भारतीय जातियों का इतिहास:

भारत का जाति-व्यवस्था एक जटिल और बहुआयामी सामाजिक संरचना रही है, जिसका इतिहास प्राचीन काल से लेकर आज तक विकसित हुआ है। जातियाँ समाज के विभिन्न वर्गों को दर्शाती हैं, जिन्हें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक पहलुओं के आधार पर विभाजित किया गया। भारतीय जाति व्यवस्था का इतिहास वेदों और उपनिषदों से लेकर मध्यकाल और आधुनिक काल तक फैला हुआ है।

1. प्रारंभिक इतिहास (वेदों और उपनिषदों का काल)

भारत में जाति व्यवस्था की शुरुआत वेदों के समय से मानी जाती है। वेदों में समाज को मुख्यतः चार वर्गों (वर्णों) में बांटा गया था:

  • ब्राह्मण: धार्मिक कार्यों और ज्ञान के संवर्धन से जुड़े लोग।
  • क्षत्रिय: शासक और योद्धा वर्ग।
  • वैश्य: व्यापारी और कृषक वर्ग।
  • शूद्र: श्रमिक वर्ग जो अन्य तीन वर्गों की सेवा करता था।

यह चारfold प्रणाली "वर्ण व्यवस्था" के रूप में जानी जाती थी। हालांकि, इसे एक आदर्श व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया था, लेकिन समय के साथ इसे जाति व्यवस्था के रूप में बदल दिया गया, जो अधिक जटिल और कठोर हो गई।

2. मध्यकालीन भारत

मध्यकाल में भारतीय समाज में जातियों की संख्या में वृद्धि हुई। इस समय विदेशी आक्रमणकारियों जैसे मंगोलों, अफगानों और मुगलों के प्रभाव ने भारतीय समाज की संरचना को प्रभावित किया। इसके अलावा, विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों के आपसी मेल-जोल के कारण जातियों का अधिक विस्तार हुआ।

मुगल साम्राज्य और इसके बाद के विभिन्न राज्यों ने जातियों के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को संरक्षित किया। यह काल सामाजिक असमानताओं और जाति आधारित भेदभाव को और बढ़ाने वाला था।

3. ब्रिटिश काल

ब्रिटिश शासन के दौरान जाति व्यवस्था में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समाज का अध्ययन किया और जातियों को विभिन्न श्रेणियों में बांटने का कार्य शुरू किया। इस समय जाति आधारित जनगणना की प्रक्रिया शुरू हुई, जो जाति की पहचान और श्रेणी को कानूनी और प्रशासनिक दृष्टिकोण से स्थापित करती थी।

ब्रिटिश शासन के दौरान, अंग्रेजों ने कई जातियों को "प्रोन्नत" (जिन्हें "शैड्यूल्ड कास्ट" कहा गया) और अन्य को "निम्न जाति" के रूप में वर्गीकृत किया। इससे जाति आधारित भेदभाव और असमानता को और बढ़ावा मिला।

4. स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार आंदोलन

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, जातिवाद के खिलाफ कई समाज सुधारकों ने आंदोलन चलाए।

  • स्वामी विवेकानंद ने धार्मिक और सामाजिक समानता की वकालत की।
  • रवींद्रनाथ ठाकुर (रवींद्रनाथ टैगोर) ने जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई।
  • डॉ. भीमराव अंबेडकर ने "अछूत" और "निर्बल" जातियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी और भारतीय संविधान में इन्हें आरक्षण देने की व्यवस्था की।

यह समय भारत में जाति व्यवस्था को चुनौती देने और इसके खिलाफ जागरूकता फैलाने का था।

5. आधुनिक काल

आजादी के बाद, भारतीय संविधान ने जातिवाद को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाए। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई, ताकि उन्हें शिक्षा, नौकरी और सामाजिक अवसरों में समान अधिकार मिल सकें।

भारतीय समाज में आज भी जातिवाद एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा है, हालांकि इसमें बदलाव हो रहा है। शिक्षा, रोजगार, और समाज में समानता के लिए विभिन्न योजनाएँ और प्रयास किए जा रहे हैं।